सृष्टि का चक्र अनवरत गतिशील है—गर्मी, वर्षा और शीत ऋतु इसका पर्याय हैं। इन्हीं ऋतुओं में से एक—वर्षा ऋतु—न केवल पर्यावरणीय दृष्टि से, बल्कि आध्यात्मिक और धार्मिक जगत के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। जैन धर्म में इस अवधि को “चातुर्मास” या “वर्षायोग” कहा जाता है, जो आषाढ़ शुक्ल चतुर्दशी से प्रारंभ होकर कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी तक चार महीने तक चलता है। यह वह विशेष काल होता है जब जैन साधु एक स्थान पर निवास कर साधना, स्वाध्याय, प्रवचन और आत्मकल्याण की ओर उन्मुख रहते हैं।
वर्षा ऋतु में जीवों की उत्पत्ति, पृथ्वी की कोमलता और विहार की कठिनता को ध्यान में रखते हुए, अहिंसा के सर्वोच्च आदर्श को निभाने हेतु यह नियम बना कि इस काल में साधु स्थिर रहें। चातुर्मास, आत्मा को निर्मल करने का एक विशिष्ट अवसर प्रदान करता है। यह काल केवल साधु-साध्वियों के लिए नहीं, बल्कि श्रावक-श्राविकाओं के लिए भी आत्म-संयम, तपस्या और धर्मोपासना का अवसर है।
चातुर्मास के पीछे गहरे वैज्ञानिक तर्क भी छिपे हैं:
- वर्षा ऋतु में जीवों की उत्पत्ति बहुत अधिक होती है; इस काल में विहार करने से अनजाने में हिंसा की संभावना बढ़ जाती है। इसलिए स्थिरता को प्राथमिकता दी गई।
- गर्मी और उमस में शरीर शिथिल हो जाता है—इसलिए उपवास, सीमित आहार, संयम और मौन से शरीर को विश्राम और शुद्धि मिलती है।
- सीलन, फफूंद और कीटाणु फैलने की संभावना अधिक होती है, इसलिए संयमित आहार और सावधानी भरा जीवन अपनाया जाता है।
इस प्रकार चातुर्मास एक प्रकार का ऋतुचर्या और जीवनशैली का पुनर्गठन है, जो आहार, विचार और व्यवहार की शुद्धि करता है।
आज के भौतिकतावादी युग में, जहाँ धन की भूख आत्मा को कमजोर बना रही है, वहाँ चातुर्मास आत्मा को धर्म से पोषित करने का अवसर है। धन को धर्म के साथ जोड़कर आत्मीय समृद्धि पाना ही चातुर्मास का सार है। संयम, संतुलन और सेवा के माध्यम से व्यक्ति अपनी आंतरिक प्यास को शांति और संतोष से तृप्त कर सकता है।
चातुर्मास के दौरान केवल साधु नहीं, अपितु हर धर्मानुरागी गृहस्थ का यह दायित्व बनता है कि वह संतों की सेवा करें, तपस्वियों का सम्मान करें, संयमित जीवन अपनाएं, क्रोध-मोह-माया-लोभ का परित्याग करें, नवकार मंत्र, प्रतिक्रमण, सामायिक आदि में भाग लें तथा अपने बच्चों को धर्म की शिक्षा दें|
चातुर्मास न केवल तपस्वियों के जीवन का अमृतकाल है, अपितु पूरे समाज के लिए जागृति और नवचेतना का समय है। यह चार महीने धर्म के बीज को बोने, सेवा का जल सींचने, संयम की धूप में तपाने और श्रद्धा के वृक्ष को विकसित करने का सर्वोत्तम काल है। जब मन, वचन और काया तीनों पवित्र हों—तभी चातुर्मास सफल होता है।
एक संकल्प करें — इस चातुर्मास को केवल परंपरा के निर्वाह के रूप में नहीं, बल्कि आत्मिक विकास और सामाजिक समर्पण के माध्यम के रूप में अपनाएं।