आचार्य श्री 108 प्रसन्न सागर जी महाराज औरंगाबाद /औसा नरेंद्र /पियूष जैन भारत गौरव साधना महोदधि सिंहनिष्कड़ित व्रत कर्ता अन्तर्मना आचार्य श्री 108 प्रसन्न सागर जी महाराज एवं सौम्यमूर्ति उपाध्याय 108 श्री पीयूष सागर जी महाराज ससंघ का विहार महाराष्ट्र के ऊदगाव की ओर चल रहा है विहार के दौरान भक्त को कहाँ की
खुद को समझना ही सबसे बड़ी समझदारी है..!
अभी हम जो बातें दुनिया को सीखा रहे हैं, उन बातों से हम स्वयं अनभिज्ञ हैं। ये कैसी समझदारी है-? कभी शान्त मन और विचारों के बाजार से मुक्त होकर सोचना — हम स्वयं को शुभ से दूर और अशुभ में लिप्त करते जा रहे हैं।
अरे बाबू!शुभ कार्य में शीघ्रता करो और अशुभ कार्य में विलम्ब। अभी उल्टा हो रहा है – शुभ में विलम्ब हो रहा है और अशुभ में शीघ्रता। ये कैसी समझदारी है भाई – शुभ में प्रमाद और अशुभ में उत्साह-? प्रमाद में शुभ और अशुभ का विवेक खो जाता है। प्रमाद में मन की ऊर्जा का अपव्यय होता है। इसलिए *प्रमाद को हम पाप मानते हैं, और अप्रमाद को पुण्य।प्रमाद पाप का जन्म दाता है तो अप्रमाद पुण्य का जनक। प्रमाद में जोड़ने का भाव होता है और अप्रमाद में छोड़ने का भाव। प्रमाद में रखने का मन होता है और अप्रमाद में देने का भाव।
मुनिराजों के प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थान होते हैं। प्रमत्त गुणस्थान आत्म साधकों को नीचे गिराता है और अप्रमत्त गुणस्थान आत्म साधकों को ऊपर उठाता है।