आत्म ब्रह्म में लीनता ही सर्वश्रेष्ठ है। आत्मान्वेषण, सुदद्धात्म ,शुद्धात्म-लीनता ही उत्कृष्ट ब्रह्मचर्य धर्म है।
शीलव्रत, ब्रह्मचर्य सर्व प्रधान अंक के समान है, और अन्य व्रत शून्य के समान हैं। ब्रद्मचर्य व्रतों में प्रधान है। ब्रह्मचर्य श्रेष्ठसाधना है। ब्रह्मचर्य सिद्धि का साधन है। ब्रह्मचर्य महानता का व्रत है। ब्रहमचर्य शूरवीरों का चिह्न है। ब्रह्मचर्य व्रतों में सम्राट् है। ब्रह्मचर्य ब्रह्म-स्वरूप निजात्मा में लीन होना ही ब्रह्मचर्य धर्म है परम पुण्यात्मा का परिचय ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ-पुरुषों का गुण है।
यह उद्गार पथरिया में विराजित पट्टाचार्य विशुद्ध सागर जी महाराज ने आज पर्यूषण पर्व के अंतिम दिवस ब्रह्मचर्य धर्म पर प्रवचन देते हुए व्यक्त किए।
अब्रह्म, काम-सेवन, वासना, पशु-वृत्ति मानसिक रोग है। अब्रह्म अनर्थकारी है। अब्रह्म-सेवन महा-हिंसक है। अब्रह्म भाव काम-सेवन से शक्ति क्षीण हो जाती है, बुद्धि का क्षय होता है, चेहरे की चमक चली जाती है, पुण्य क्षीण होता है, रुग्नता बढ़ती है, नेत्रों की ज्योति घटती है, बाल सफेद होते हैं, मन चंचल होता है, संताप होता है, तृष्णा जाग्रत होती है, विश्शुद्धि का हास होता है। स्त्री संसर्ग, सरस आहार, शरीर श्रृंगार, गीत-नृत्य, धन संग्रह, रात्रिसंचरण ये अब्रह्म के कारण हैं।
विषय- कषायों में दुर्भाव को छोड़कर, शीलव्रत धारण करना ब्रहमचर्य धर्म है। स्त्रियों को पुरुषों से तथा पुरुषों को स्त्रियों के प्रति जो राग दृष्टि उससे प्रेरित होकर जो क्रिया है, यही अशांति का कारण है। इन्द्रिय-विषयों में प्रवृत्ति करना, संयमित जीवन जीना, पवित्र परिणाम रखना, सम्भोग से विरक्त होना ही ब्रद्मचर्य धर्म है। शीलवान् पुरुषों का सर्वस्व ही ब्रह्मचर्य धर्म है। अन्तर्मुखी दृष्टि, ब्रहमचर्य धर्म है। शरीर का प्राण वीर्य है, व्रतों का प्राण शील है
संयम-शील के पालन से व्यक्ति नर से नारायण बन जाता है। ब्रह्मचर्य शीलवान के प्रभाव से स्वर्ग के देव भी प्रभावित हो जाते हैं। ब्रहमचर्य व्रत चिन्तामणि रत्न के समान महत्त्वपूर्ण हैं। शीलवृत शिव बनो, शव मत बनो।
– राजेश जैन दद्दू
Unit of Shri Bharatvarshiya Digamber Jain Mahasabha