पर्यूषण पर्व / दशलक्षण महापर्व : आत्मशुद्धि की ओर एक आध्यात्मिक यात्रा
भारत की धर्मप्रधान संस्कृति में पर्व केवल उल्लास और उत्सव का नाम नहीं, बल्कि आत्मानुशासन, साधना और आत्मोत्थान का अवसर होते हैं। जैनधर्म के अनुयायियों के लिए वर्ष का सबसे प्रमुख अवसर होता है – पर्यूषण पर्व / दसलक्षण पर्व। पर्यूषण यानि दसलक्षण पर्व का जैनधर्म में बहुत ही महत्व है। यह पर्व हमारे जीवन को परिवर्तन में कारण बन सकता है। यह ऐसा पर्व है जो हमारी आत्मा की कालिमा को धोने का काम करता है। दिगम्बर एवं श्वेतांबर जैन दोनों में यह पर्व भारी श्रद्धा के साथ मनाया जाता है।
यह पर्व आत्मशुद्धि, संयम, क्षमा और करुणा की भावनाओं को जीवन में उतारने का पुनीत अवसर है। जैन परंपरा में यह पर्व मोक्षमार्ग की तैयारी का एक ऐसा विशेष काल है, जिसमें व्यक्ति कर्मों के क्षय हेतु विविध धार्मिक आराधनाएं करता है।
पर्युषण का शाब्दिक एवं दार्शनिक अर्थ :
‘पर्युषण’ शब्द संस्कृत धातु ‘उष्’ से बना है, जिसका अर्थ है – ठहरना, वास करना, निवास करना। ‘परि + उषण’ का सामासिक अर्थ हुआ – चारों ओर से आत्मा में वास करना।
इस पर्व का उद्देश्य ही है – “बाह्य विषय-वासना से हटकर आत्मा में रमण करना।”
पर्युषण का वास्तविक संदेश है –
आत्मावलोकन करना
कषायों का नियंत्रण
तप-स्वाध्याय द्वारा आत्मा को निर्मल बनाना
और सबसे महत्वपूर्ण – क्षमाभाव को अपनाना।
यह पर्व जीवमात्र को क्रोध, मान,माया,लोभ, ईर्ष्या, द्वेष, असंयम आदि विकारी भावों से मुक्त होने की प्रेरणा देता है। हमारे विकार या खोटे भाव ही हमारे दु:ख का कारण हैं और ये भाव वाह्य पदार्थों या व्यक्तियों के संसर्ग के निमित्त से उत्पन्न होते हैं। आसक्ति—रहित आत्मावलोकन करने वाला प्राणी ही इनसे बच पाता है। इस पर्व में इसी आत्म दर्शन की साधना की जाती है। यह एक ऐसा अभिनव पर्व है कि जिसमें अपने ही भीतर छिपे सद्गुणों को विकसित करने का पुरुषार्थ किया जाता है। अपने व्यक्तित्व को समुन्नत बनाने का यह पर्व एक सर्वोत्तम माध्यम है। इस दौरान व्यक्ति की संपूर्ण शक्तियां जग जाती हैं।
आत्मा के दश गुणों की आराधना :
इस पर्व में आत्मा के दश गुणों की आराधना की जाती है। इनका सीधा सम्बंध आत्मा के कोमल परिणामों से है। इस पर्व का वैशिष्ट्य है कि इसका सम्बन्ध किसी व्यक्ति विशेष से न होकर आत्मा के गुणों से है। इन गुणों में से एक गुण की भी परिपूर्णता हो जाय तो मोक्ष तत्व की उपलब्धि होने में किंचित् भी संदेह नहीं रह जाता है। दशलक्षण धर्म के ये दस लक्षण आत्मा की दशा को सुधारने वाले दस पावन भाव हैं:
1. उत्तम क्षमा : दूसरों की गलतियों को क्षमा करना और अपनी भी भूलों को स्वीकार कर क्षमायाचना करना।
2. उत्तम मार्दव : नम्रता और विनम्रता – यह अहंकार की जड़ काटने वाला गुण है।
3. उत्तम आर्जव : सरलता और निष्कपटता – छल, कपट और दिखावे से दूर रहकर जीवन जीना।
4 . उत्तम शौच : बाह्य नहीं, भीतर की पवित्रता – मन, वचन, काया की शुद्धि।
5. उत्तम सत्य :वाणी, विचार और आचरण में सत्य का पालन।
6. उत्तम संयम : इंद्रियों का नियंत्रण, संयम से जीवन को स्थिरता देना।
7. उत्तम तप : साधना और तपस्या – कर्मों की निर्जरा का श्रेष्ठ उपाय।
8. उत्तम त्याग : स्वेच्छा से मोह का परित्याग, वस्तुओं से आसक्ति का त्याग।
9. उत्तम आकिंचन्य : ममता रहित, संपत्ति और संबंधों में मोह न करना।
10. उत्तम ब्रह्मचर्य : विवेक और आत्मसंयम के साथ जीवन जीना, विषयों से विरक्ति।
इन दस धर्मों की साधना ही आत्मा की मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करती है। अनंत चतुर्दशी को पर्व का समापन होता है।
क्रोध-द्वेष को छोड़कर, क्षमा करें स्वीकार।
पर्युषण है पर्व नहीं, आत्मा का श्रृंगार॥
धार्मिक गतिविधियाँ और साधनाएँ
इस पर्व के दौरान अनेक धार्मिक आयोजन होते हैं:
उपवास, एकासन, स्वाध्याय, प्रवचन श्रवण, ध्यान, ध्यानशाला, प्रार्थना,जिनपूजन, रथयात्रा, जिनवाणी यात्रा, क्षमायाचना, सामायिक, प्रतिक्रमण आदि।
दसलक्षण पर्व का वर्तमान संदर्भ में महत्व : आज की भागदौड़, संघर्ष और तनावपूर्ण जीवनशैली में यह पर्व आत्मा के साथ संवाद करने का सुनहरा अवसर है। यह पर्व अहिंसा, आत्मनिरीक्षण और समता की ओर उन्मुख करता है। यह पर्यावरणीय शुद्धि, मानव संबंधों की सुधारना और सामाजिक समरसता लाने वाला पर्व है। यह पर्व अहिंसा युक्त आहार, ब्रह्मचर्य युक्त व्यवहार और संयमयुक्त विचार को जागृत करता है।
बालकों और युवाओं के लिए सन्देश : आज के युग में युवाओं के लिए यह पर्व Charcter Building Workshop के समान है। यह उन्हें नैतिकता, सच्चाई, दया और क्षमाशीलता की शिक्षा देता है। नशा, क्रोध, ईर्ष्या, घमंड जैसे विकारों से मुक्त होकर अपने व्यक्तित्व को निखारने का अद्भुत अवसर है।
पर्व नहीं, यह आत्माराधना का अभियान है : पर्युषण पर्व उत्सव नहीं, अभ्युदय का क्षण है। यह आत्मा के पास आने, उसमें स्थिर होने और उसे निर्मल करने का माध्यम है। यह पर्व आत्मा का उत्सव है, बाहरी तामझाम नहीं।जो इस पर्व को जितना भावपूर्वक मनाता है, उसकी आत्मा उतनी ही निर्मल हो जाती है।
दिगम्बर, श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों में मनाने की परंपरा : जैनधर्म के दिगम्बर, श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों में इस पर्व को मनाने की परम्परा है। विशेष यह है कि श्वेताम्बर समाज भाद्रपद कृष्णा त्रयोदशी से भाद्रपद शुक्ला पंचमी तक सिर्फ 8 दिन का मनाते हैं। जबकि दिगम्बर समाज में 10 दिन का प्रचलन है। यह एक मात्र आत्मशुद्धि और आत्म जागरण का पर्व है।
जीवन को पर्यूषणमय बनाएं :आइए, इस पर्युषण पर्व पर हम संकल्प लें – हम क्षमा को जीवन में अपनाएंगे। हम सत्य, संयम और शुद्ध आचरण का अभ्यास करेंगे। हम आत्मा की आराधना करेंगे और सबके साथ मिलकर कहेंगे –
संयम की साधना करें, आत्मा का हो श्रृंगार।
पर्युषण पर्व में करें, निज अंतर का सुधार॥