“जियो और जीने दो” एक छोटा-सा वाक्य है, परंतु इसमें छिपा हुआ संदेश अत्यंत गहरा और व्यापक है। यह सिद्धांत केवल सामाजिक जीवन की मर्यादा नहीं बल्कि मानवीय संवेदना, सहिष्णुता, करुणा और अहिंसा का मूल आधार है। यह जीवन-दर्शन हमें न केवल स्वयं के विकास की प्रेरणा देता है, अपितु दूसरों के अस्तित्व को सम्मान देने की भी सीख देता है।
“सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया:” यानी सभी जीव सुखी हों, सभी निरोगी हों — यह भावना “जियो और जीने दो” के भाव को उदात्त बनाती है। “अहिंसा परमो धर्मः” — यह केवल हिंसा न करने की बात नहीं करता, बल्कि दूसरों को भी अहिंसा से जीने की अनुमति देने की प्रेरणा देता है।
जैन दर्शन में पंचव्रतों में से अहिंसा व्रत, जीव मात्र को न पीड़ित करने की भावना का प्रतीक है। यहाँ तक कि अणुव्रत आंदोलन और अनेक आधुनिक अहिंसक क्रांतियाँ भी इसी मूल भावना से प्रेरित रही हैं। महात्मा गांधी ने अहिंसा को केवल एक नीति नहीं, बल्कि जीवन का नियम माना और “जियो और जीने दो” को राजनीतिक हथियार बनाया।
‘जियो और जीने दो’ का तात्पर्य: इस कथन का सरल अर्थ है कि स्वयं जीवन को आनंदपूर्वक जियो, लेकिन साथ ही दूसरों को भी जीवन जीने का समान अधिकार दो। इसका आशय यह है कि किसी भी कार्य में हमारी स्वतंत्रता वहीं तक सीमित है जहाँ तक वह दूसरों की स्वतंत्रता को बाधित न करे। यह विचार आत्म-केंद्रित नहीं बल्कि समन्वयवादी और सह-अस्तित्व को बढ़ावा देने वाला है।
धार्मिक दृष्टिकोण से विचार: भारतीय धर्म-दर्शन विशेष रूप से जैन धर्म, इस सिद्धांत का सबसे सुंदर उदाहरण प्रस्तुत करता है। जैन दर्शन में अहिंसा परमो धर्म: की भावना ही “जियो और जीने दो” के विचार की आत्मा है। जैनाचार्यों ने यह स्पष्ट रूप से कहा है कि प्रत्येक जीव चाहे वह सूक्ष्म हो या स्थूल, जीने की इच्छा रखता है। इसलिए हमें न केवल मनुष्यों के प्रति बल्कि पशु-पक्षी, वनस्पति और जलचर तक के प्रति करुणा और सहिष्णुता रखनी चाहिए।
समाज में इसकी प्रासंगिकता: आज का युग अत्यंत प्रतिस्पर्धा और संघर्ष से भरा हुआ है। ऐसे में “जियो और जीने दो” का सिद्धांत सामाजिक समरसता और शांति के लिए अत्यंत आवश्यक हो गया है। जातिवाद, धार्मिक कट्टरता, भाषायी विवाद, क्षेत्रीय टकराव — इन सबका समाधान इसी एक विचार में समाहित है। जब हम दूसरों की भावनाओं, विचारों और जीवन के तरीकों का आदर करना सीखेंगे, तभी एक आदर्श समाज की स्थापना संभव हो सकेगी।
पर्यावरणीय परिप्रेक्ष्य में : केवल मानव समाज ही नहीं, प्रकृति और पर्यावरण भी “जियो और जीने दो” के सिद्धांत से जुड़ा हुआ है। वृक्षों, नदियों, वनों और पशु-पक्षियों को जीने दो — यही सतत विकास का आधार है। अंधाधुंध दोहन, वनविनाश और प्रदूषण ने जीवों का जीवन संकट में डाल दिया है। कत्लखाने, पशु हत्या देश पर कलंक है। यदि हमने इस सिद्धांत को गंभीरता से न अपनाया, तो पृथ्वी पर जीवन असंभव हो जाएगा।
“जियो और जीने दो” का सिद्धांत केवल मानव-समाज तक सीमित नहीं है। यह संपूर्ण जीव जगत पर लागू होता है।
व्यक्तिगत जीवन में इसका महत्व:
व्यक्ति जब दूसरों की भावनाओं और आवश्यकताओं को समझता है, तभी वह एक सच्चा इंसान कहलाता है। पारिवारिक जीवन में, कार्यालय में, मित्रों के साथ, जब हर कोई इस विचार को अपनाता है, तो रिश्तों में मधुरता और संतुलन आता है। सहनशीलता, क्षमा और मैत्री जैसे गुण इसी विचार से उत्पन्न होते हैं।
येन केन प्रकारेण जीवितं रक्ष्यते बुधैः।
न तु परपीडनं कृत्वा जीवितं सुखदं भवेत्॥
बुद्धिमान व्यक्ति किसी भी प्रकार से जीवन की रक्षा करता है, परंतु दूसरों को पीड़ा देकर जीना कभी सुखद नहीं हो सकता।
स्वात्मनं जीवयेत् प्राज्ञः, परानपि जीवयेत् समम्।
न स एव सन्तो मत्वा, यो स्वार्थे सर्वं क्षिणोति॥”
जो केवल अपने स्वार्थ के लिए दूसरों का नाश कर दे, वह सज्जन नहीं, संकीर्ण हृदय वाला होता है।
निष्कर्ष: “जियो और जीने दो” केवल एक नारा नहीं, बल्कि एक जीवन-दर्शन है। यह व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और सम्पूर्ण विश्व के लिए मार्गदर्शक सिद्धांत हो सकता है। जब हम इसे अपने व्यवहार, विचार और क्रियाओं में अपनाएँगे, तभी एक शांतिपूर्ण, समरस और टिकाऊ समाज का निर्माण संभव होगा।
“जियो और जीने दो” एक सार्वभौमिक जीवन-सिद्धांत है जो व्यक्ति और समाज को अहिंसा, सहिष्णुता और परस्पर सम्मान की ओर अग्रसर करता है। यह केवल एक नैतिक आदर्श नहीं, बल्कि व्यवहारिक जीवन का मार्गदर्शक है। आधुनिक समय में जब मानवता अनेक संकटों से जूझ रही है, यह सूत्र हमें शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व का समाधान प्रदान करता है।”दूसरों की साँसों का मूल्य समझो, तभी अपनी साँसों का मूल्य पता चलेगा।”,
आइए, ‘जियो और जीने दो’ के मंत्र को अपनाकर, अपने जीवन को भी अर्थपूर्ण बनाएं और दूसरों को भी सम्मानपूर्वक जीवन जीने का अवसर दें।
नफ़रतों की आग में जलता रहा इंसान क्यों,
प्रेम की भाषा भूला, बना खुदा से अनजान क्यों।
थाम लो हाथ एक-दूजे का, मिटा दो दूरी हर द्वार,