मुरैना/रामगंजमंडी (मनोज जैन नायक) धर्मसभा को संबोधित करते हुए बक्केशरी आचार्यश्री विनिश्चय सागर महाराज ने कहा मनुष्य के ऐसे संस्कार हैं कि उसे जिस चीज की आदत पड़ जाती है वह उसे आसानी से नहीं छोड़ता । उसे कितना भी टोका जाए, नहीं छोड़ता । चोर चोरी से जाए पर हेरा फेरी से न जाए। भिखारी के मांगने की आदत होती है, कितना भी दे दो, फिर भी वह संतुष्ट नहीं होता । उसकी वह आदत छूटने वाली नहीं है। महत्वाकांक्षा की आदत हो गई है, अंतस चेतना की आदत हो गई है । फ़िर मिल जाए, फिर मिल जाए एक बार मिलने पर संतुष्टि नहीं होती । संसार में कितने लोग हैं जो जीरो से करोड़पति हो गए, लेकिन शांति अभी भी नहीं है । उनकी महत्वाकांक्षा बढ़ती जाती है, बढ़ती जाती है।
इच्छा बुरी चीज नहीं होती लेकिन सीमा के बाद बुरी हो जाती है। अभिषेक की इच्छा है, सुबह कर लो, आप तो कहो कि दिनभर कर लेंगे। सीमा पार हुई इच्छा ठीक नहीं। चाहे वह धर्म ध्यान की क्रिया हो । जिस समय में हो सकती है, उतने समय में हम कर सकते हैं।
पूज्य गुरुदेव ने दुर्योधन का उदाहरण देते हुए कहा कि दुर्योधन महत्वाकांक्षाओ का खजाना था। उसको आंखों से कुछ दिखाई नहीं देता था, किंतु पिता के सिर पर रखा हुआ मुकुट दिखाई देता था कि यह न चला जाए । साम्राज्य मुझे मिले और यह इच्छा रखता था यह पांडवों को ना मिल जाए। फिर क्या हुआ महाभारत हो गई। न्याय पूर्वक महत्वाकांक्षा नहीं होगी तो महाभारत तो होगीही । यदि न्याय पूर्वक इच्छा होगी तो झगड़ा नहीं होगा, महाभारत नहीं होगी और युद्ध नहीं होगा। न्याय के बाहर इच्छा जाती है तो परिवार में झगड़ा इच्छाओं के कारण है। न्याय पूर्वक इच्छा होनी चाहिए। न्याय पूर्वक व्यक्ति की इच्छा है तो वह गृहस्थ है। अन्याय पूर्वक है तो वह गृहस्थी से बाहर है । उस व्यक्ति की कोई आवश्यकता नहीं है। इच्छाएं हमेशा न्यायपूर्वक ही होनी चाहिए।
न्यायपूर्वक कार्य करने के बाद अधिक धन संपत्ति हे तो दान कर दो, लोगों का सहयोग कर दो। अन्याय पूर्वक इच्छाएं बनाकर धन का संग्रह करना धर्म विरुद्ध होगा और हानि होगी । श्रद्धा घट जाएगी और मिथ्यात्व आ जाएगा। नुकसान उस चीज का होगा जो अंत में आपके साथ जाने वाली है। लोगों को व्यक्ति का धन दिखाई देता है लेकिन गुण नहीं। इच्छा का मतलब होता है आत्मा से उत्पन्न भाव।
पुण्य की प्रकृति तांडव कराती है । पुण्य प्रकृति की महिमा विचित्र है । कैसे कैसे तांडव कराती है । लोगो से भिखारी दिन भर पैसा मांगता है शाम को 500 रूपये इकट्ठे करता है । पुण्य का मद ऐसे चढ़ता है कि वह शाम को शराब पीने मधुशाला में पहुंच जाता है, जुआ खेलता है । व्यक्ति भी पुण्य में ऐसा ही करता है । यह होता पुण्य का तांडव क्योंकि यह प्रशस्त पुण्य नहीं है। यदि प्रशस्त पुण्य होता है तो मंदिर में आता है। गुल्लक में डालता । ध्यान रखना यदि अन्याय पूर्वक धन कमाया है और दान करता है तो वह अप्रशस्त पुण्य है। हमें ध्यान रखना चाहिए कि जो कार्य हम कर रहे है आत्मा के लिए न्याय पूर्वक है या अन्याय पूर्वक है। इच्छाएं यदि अन्याय पूर्वक होगी तो आत्मा के विरुद्ध जाएगी। आकांक्षाए स्वभाव नहीं हैं हमारा यह विभाव है। इच्छाओं से विपरीत होना हमारा स्वभाव है।
जीव अकेला पाप करता है इंद्रिय विषयों के निमित्त से प्रत्येक व्यक्ति को जीवन के कार्यों का बैलेंस शीट बनाना चाहिए । कार्यों को लिखो, बैलेंस शीट में मंदिर नहीं आए, चीजों को लिखना, गुल्लक में जिस दिन पैसे नहीं डाले वह लिखना । कितने भी बुरे विचार आपको आए वह लिखो । आपने किसी का सहयोग नहीं किया वह भी लिखो तो पता चलेगा कि मैं कितनी गहराई में हूं। पता लगेगा कि आपके जीवन में कुछ भी अच्छा नहीं है।
आचार्य ने स्वाध्याय का मतलब समझाया उन्होंने कहा स्वाध्याय का मतलब है चारित्र को पढ़कर चिंतन में दृष्टि रखना। महापुरुषों के बारे में पढ़कर समीक्षा करना और अपने जीवन चारित्र में सुधार करना स्वाध्याय होता है।
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