जैनधर्म के तेइसवें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ भगवान की जीवनगाथा

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जैन धर्म का प्रादुर्भाव श्रमण परम्परा से हुआ है तथा इसके प्रवर्तक २४ तीर्थंकर हैं । जैन धर्म में तीर्थंकर शब्द से तात्पर्य उन महान पुण्यशाली महापुरुषों से है जो स्व – पर के कल्याण के लिए धर्म का मार्ग बतलाते हैं अर्थात जो स्वयं इस संसार से तिरते हैं और सभी सांसारिक जीवात्माओं को तिरने की कला सिखाते हैं । तीर्थंकर महापुरुषों का जन्म वर्तमान अवसर्पिणी काल में चतुर्थ खंड में हुआ । जिनमें प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव (आदिनाथ) तथा अन्तिम चौबीसवें तीर्थंकर वर्धमान महावीर स्वामी हैं।

इसी श्रंखला में 22वें तीर्थंकर एवं ऐतिहासिक पुराण पुरुष श्री कृष्ण के चचेरे भाई श्री नेमीनाथ स्वामी (अरिष्टनेमि) के पश्चात 23वें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ का जन्म आज से लगभग 2 हजार 9 सौ वर्ष पूर्व (८७२-७७२ ई.पू.) वाराणसी में हुआ था। वाराणासी में अश्वसेन नाम के इक्ष्वाकुवंशीय राजा थे। उनकी रानी वामा ने पौष कृष्‍ण एकादशी के दिन महातेजस्वी पुत्र को जन्म दिया, जो जन्म से ही मति, श्रुत और अवधि ज्ञान का धारी था । जिसके दाहिने पैर के अंगूठे पर पर सर्प का चिन्ह था, जिसे जन्माभिषेक के समय सौधर्म इंद्र के द्वारा उनका परिचय चिन्ह उद्घोषित किया गया । उनके शरीर की ऊंचाई नौ हाथ तथा शरीर का रंग हरित वर्ण था ।

श्री पार्श्वनाथ का प्रारंभिक जीवन राजकुमार के रूप में व्यतीत हुआ। एक समय संध्याकालीन भ्रमण के दौरान उन्होंने एक तपस्वी देखा जो अपने चारों ओर अग्नि जलाकर तपाचरण कर रहा था, अंतर्ज्ञानी श्री पार्श्वनाथ ने यह जान लिया कि अग्नि में सर्प का जोड़ा जल रहा है, करुणा के भाव से भरे राजकुमार पार्श्वनाथ ने तपस्वी को टोका कि करुणा और दया भाव के बिना धर्म की साधना नही हो सकती और जलते हुए नाग नागिन के जोड़े को णमोकार महामंत्र का पाठ सुनाया, जिसके फलस्वरूप वे मरणोपरांत स्वर्ग में देव देवी हुए।

गृह त्याग एवं सन्यास :

अध्यात्म की साधना और स्व – पर के कल्याण की भावना से उन्होंने अविवाहित बाल ब्रह्मचारी रहते हुए मात्र 30 वर्ष की युवा अवस्था में ही अपने सम्पूर्ण राजपाठ, गृह – वैभव का परित्याग कर वैशाख कृष्णा दशमी तिथि को संध्याकाल की गोधूलि वेला में महा चारित्र रूप जैनेश्वरी संयम को धारण कर लिया । उन्होंने बनारस नगरी के उद्यान में एक शिला पर स्थित होकर मोह भाव से मुक्त होकर अपने सम्पूर्ण वस्त्राभूषण का भी परित्याग कर दिया तथा शरीर से निर्ममत्व भाव के साथ अपने सिर के सभी केशों को पांच बार में ही उखाड़ फेंका । यह साधना का चरमोत्कर्ष स्वरूप ही है कि उन्हें सन्यास धारण करते ही एक और दिव्यता मनः पर्यय ज्ञान के रूप में प्राप्त हुई।

कैवल्य ज्ञान का जागरण :

सहसाम्र वन में घोर तपस्या और कमठ के घोर उपसर्ग विजय के पश्चात चार घातिया कर्मों को नष्ट कर उन्हें केवल ज्ञान प्राप्त हुआ, तत्पश्चात उन्होंने अहिच्छत्र, बिहार, पुंड़्र, ताम्रलिप्त आदि अनेक नगरों में धर्मोपदेश देते हुए विहार किया । उनकी उपदेश सभा को समवशरण कहा जाता था, जिसका शाब्दिक अर्थ है सभी जीवों की एक समानता के साथ शरणस्थली । श्री पार्श्वनाथ भगवान ने चतुर्विध संघ की स्थापना की, जिसमे मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका होते हैं और आज भी वर्तमान जैन साधु संघ इसी स्वरुप में है। उनके उपदेशों के प्रसारित करने वाले उनके श्री शुभदत्त आदि 10 गणधर मुनि थे। जो भगवान की शिक्षाओं को सरलतम भाषा में जन जन तक पहुंचाने का सम्यक पुरुषार्थ करते थे ।

तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ का मुख्य उपदेश :

श्री पार्श्वनाथ भगवान पर तपस्या के समय उनके पूर्व जन्म के शत्रु कमठ ने घोर उपसर्ग किए, लेकिन श्री पार्श्वनाथ भगवान ने अपने ध्यान की अखंडता रखते हुए उस दुष्ट शत्रु को भी समता की साधना से क्षमा कर क्षमाभाव का जीवंत उपदेश दिया । कैवल्य ज्ञान प्राप्ति के पश्चात श्री पार्श्वनाथ भगवान ने धर्म तीर्थ का प्रवर्तन करते हुए मुख्य रूप से अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह रूप चारित्रिक धर्म एवं अनेकांतवाद सिद्धांत का मार्गदर्शन दिया । श्री पार्श्वनाथ भगवान ने अपने शिष्यों तथा अनुयायियों को उपदेश देते हुए कहा है कि उन्हें बोलते-चलते, उठते-बैठते, सोते और खाते-पीते सदा यत्नशील रहना चाहिए अर्थात प्रत्येक क्रिया को पूर्ण विवेक और जागृति के साथ करना चाहिए। अविवेक पूर्वक कामभोगों में आसक्ति ही हिंसा है, इसलिये विकारों पर विजय पाना, इन्द्रियों का दमन करना और अपनी समस्त वृत्तियों को संकुचित करने को अहिंसा परम धर्म बताया है।

पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति में भी जीवन है, अतएव पृथ्वी आदि एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा से भी हमें यथा शक्ति बचना चाहिए। उनके अनेकांतवाद सिद्धांत में परस्पर विरोधियों में भी सद्भावना, समन्वय और विश्वशांति का रहस्य गर्भित है । इसे अहिंसा का ही व्यापक रूप समझना चाहिए। राग द्वेषजन्य संस्कारों के वशीभूत न होकर दूसरे के दृष्टिबिन्दु को ठीक-ठीक समझने का नाम अनेकान्तवाद है। इससे मनुष्य सत्य के निकट पहुँच सकता है। इस सिद्धान्त के अनुसार किसी भी मत या सिद्धान्त को पूर्ण रूप से सत्य नहीं कहा जा सकता। प्रत्येक मत अपनी अपनी परिस्थितयों और समस्याओं को लेकर उद्भूत हुआ है, अतएव प्रत्येक मत में अपनी अपनी विशेषताएँ हैं। अनेकान्तवादी इन सबका समन्वय करके आगे बढ़ता है।

मोक्षगमन :

लगभग सौ वर्ष की आयु काल में अपना निर्वाणकाल समीप जानकर वे भारत के झारखंड प्रांत में तेरह सौ पचास मीटर की सर्वाधिक ऊँचाई पर स्थित शाश्वत सिद्धभूमि श्री सम्मेद शिखरजी के स्वर्णभद्र कूट पर आत्मस्थ होकर ध्यानमग्न हो गए, जहाँ उन्होंने चार अघातिया कर्मों को सम्पूर्ण निर्मूलन कर श्रावण शुक्ला अष्टमी को प्रातः काल की प्रत्युष वेला में मोक्ष गमन किया । वस्तुतः मोक्ष एक अवस्था है जिसमें जीवात्मा की परम शुद्ध अवस्था अखंड चैतन्य और निराकार जाग्रत हो जाती है और त्रिलोक के अग्रभाग में सदा सदा काल के लिए स्थित हो जाती है, उस आत्मा को फिर कभी संसार में परिभ्रमण नही करना पड़ता।

जैन धर्म के 24 तीर्थंकरों में भगवान पार्श्वनाथ की सर्वाधिक लोकप्रियता का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि आज भी ज्यादातर जैन मंदिरों में सबसे ज्यादा श्री पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा विराजित हैं । आज भी श्री पार्श्वनाथ भगवान की अनेकों चमत्कारिक मूर्तियाँ देश भर में जैन मंदिरों में विराजित है, जो आज भी श्रद्धा और आस्था का चमत्कार दिखला रही हैं ।

– मंत्र महर्षि श्री योग भूषण जी महाराज
(संस्थापक : धर्मयोग फाउंडेशन) 

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