हमारे देश की संस्कृति, संस्कार और सदव्यवहार ही असली पहचान है। अन्तर्मना आचार्य श्री 108 प्रसन्न सागर जी महाराज

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हमारे देश की संस्कृति, संस्कार और सदव्यवहार ही असली पहचान है। अन्तर्मना आचार्य श्री 108 प्रसन्न सागर जी महाराज औरंगाबाद  नरेंद्र /पियुष कासलीवाल। भारत गौरव साधना महोदधि सिंहनिष्कड़ित व्रत कर्ता अन्तर्मना आचार्य श्री 108 प्रसन्न सागर जी महाराज एवं सौम्यमूर्ति उपाध्याय 108 श्री पीयूष सागर जी महाराज ससंघ का विहार महाराष्ट्र के ऊदगाव की ओर चल रहा है  विहार के दौरान नागपुर  मे भक्त को कहाँ की। बहू जीन्स पहनकर घर से बाहर जा रही थी,
सासु ने देखा – और कहा —
हे भगवान क्या जमाना है-?
बहू तुरंत बोली — सासू मां दही जमा लेना,
मैं शाम को आऊंगी।
भारतीय संस्कृति और संस्कारों की सुगंध समुची वसुधा और विदेशी पर्यटकों को सुवासित करती है। हमारे देश की संस्कृति, संस्कार और सदव्यवहार ही असली पहचान है। जब लोक संस्कृति का पावन प्रवाह होता है तो यह भारतीय संस्कृति आप-हमको शिक्षा, संस्कार, सदविचार,
सदभाव, प्रेम मैत्री से समृद्ध बनाती है। हमारे लोक संस्कृति का वैभव ही हमारे देश के गौरव को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। विविध प्रान्तों की लोक संस्कृतियों ने, वहां के निवासियों को अपना गौरव प्रदान किया है। यह लोक संस्कृति हमें सदाचारों से, सदव्यवहारों से, शुद्ध खान पान से, अच्छे रहन सहन से, अतिथि सत्कारों से, सदाचारी एवं अनुशासन मय जीवन जीने से, देश और राष्ट्र का सिर ऊँचा हुआ है।
यदि हमें भारतीय संस्कृति और संस्कारों को जीवन्त रखना है तो लोक संस्कृतियों को तवज्जो देना ही पड़ेगा।क्योंकि यह तवज्जो
लोक संस्कृति के घटक, लोक भाषा, लोक वेश भूषा, लोक कला, लोक व्यंजन, लोक गीत, लोक उत्सव, और ये पर्वादि सभी लोक विशिष्टताएं लिए होते हैं। आज लोक संस्कृति और संस्कारों के समृद्ध होने की महती आवश्यकता है। आज के इस दौर में नष्ट होती नैतिकता, गुम होते आर्दश, विलुप्त होती मानव सेवा, लुप्त होती आगम परम्परा शंखनाद करना एवं साहित्य सृजन को जीवन्त रखना। आज हम आधुनिकता की अन्धी दौड में, या पाश्चात्य संस्कृति की चपेट में बुरी तरह से फंसते और उलझते जा रहे हैं।
बढ़ती शिक्षा के दौर में, आज की युवा पीढ़ी, माता पिता, धर्म, संस्कार और अपने कार्य कर्तव्यों से विमुख होती जा रही है। हम अपने संस्कृति और संस्कारों को भूलते जा रहे हैं। शिक्षा की बढ़ती रफ्तार हमें अपनो से दूर और माता पिता, गुरू, धर्म और धर्मात्माओं को ढकोसला बता रही है। इन्हें उपेक्षित कर रही है। हम अपने और अपनों की उपेक्षा करके कभी उन्नति की राह में प्रगति नहीं कर सकते। भारतीय संस्कृति और संस्कारों की मीठाई को छोड़कर आधुनिकता की चकाचौंध में, या पाश्चात्य संस्कृति के गोबर को खा कर हम कभी शरीर से स्वस्थ और मन से प्रसन्न नहीं रह सकते…!!!। ‌ नरेंद्र अजमेरा पियुष कासलीवाल औरंगाबाद

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