धर्म जड़ वस्तु का नाम नहीं, चेतन का नाम है -मुनिश्री विलोक सागर

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मुरैना (मनोज जैन नायक) धर्म की रक्षा करना, धर्म के सिद्धांतों एवं संयम के मार्ग पर चलने वालों के कार्य में सहयोगी बनना ही धर्म है । धर्म किसी जड़ वस्तु का नाम नहीं हैं, धर्म चेतन का नाम है । उन सभी चेतनाओं की रक्षा करना हम सबका दायित्व है । यदि समाज में कोई गंदगी पनपती है तो हम भी कहीं न कहीं दोषी है। यदि हमने ईमानदारी से अपने कर्तव्य का पालन किया होता तो शायद वो गंदगी न पनपते पाती। गलत का विरोध न करना ही गलत का समर्थन करना है । हमें समय रहते गलत का विरोध करना चाहिए । संयमी व्यक्ति की आराधना में, उपासना में सहयोग करना ही धर्म है । यदि किसी व्यक्ति ने धर्म के मार्ग पर चलतें हुए कोई नियम आदि लिया है तो उस व्यक्ति के नियम पालन में हम सभी को सहयोग करना चाहिए । क्योंकि जब हम किसी के सहयोगी बनेंगे तो कोई हमारा भी सहयोगी बनेगा । हम संयमी व्यक्ति, धर्मात्मा व्यक्ति की निन्दा तो करने लगते है, किन्तु धर्म के सिद्धांतों के पालन में उसके सहयोगी नहीं बनते । यदि किसी व्यक्ति का प्रतिदिन अपने इष्ट के दर्शन करने का नियम है लेकिन बीमारी या अन्य किसी कारण से वह अपने इष्ट के दर्शन नहीं कर पा रहा है तो हमारा कर्तव्य है कि हम उसे इष्ट के दर्शन कराने में सहयोगी बनें, यही धर्म है । उक्त उद्गार बड़े जैन मंदिर में विराजमान दिगंबर जैन संत मुनिश्री विलोकसागर महाराज ने धर्म सभा को संबोधित करते हुए व्यक्त किए ।
परिणाम शुद्ध होने पर, अनजाने में हिंसा का पाप नहीं लगता
सांसारिक प्राणी प्रतिपल अपनी जीवनचर्या हेतु कार्य करता है । इन कार्यों को करने में उससे अनजाने में हिंसा होती है । यदि आप सावधानी पूर्वक कोई कार्य कर रहे हैं, फिर भी किसी जीव का घात हो जाता है, उसके प्राण निकल जाते है तब उसका दोष आपको नहीं लगेगा । क्योंकि आप तो सावधानी पूर्वक कार्य कर रहे थे । आपका इरादा उसे मारने का नहीं था । वह जीव अपनी असावधानी के कारण मरण को प्राप्त हुआ है । कोई व्यक्ति पुण्य कार्य करते हुए भी हिंसा कर सकता है । यदि आप भगवान की भक्ति कर रहे हैं, पूजन, पाठ, जाप आदि कर रहे हैं और आपके परिणाम ठीक नहीं है । आप बैठे तो मंदिर में हैं लेकिन आपका मन बाहर भटक रहा है, आपके मन में विकार उत्पन्न हो रहे है तो आप अहिंसावादी नहीं कहलाएंगे । जमीन पर चलते समय आप नीचे देखकर चलोगे तो जीव हिंसा नहीं होगी और यदि हो भी गई तो उस हिंसा का दोष आपको नहीं लगेगा । क्योंकि आपके परिणाम शुद्ध हैं, आपका जीव हत्या का, जीव हिंसा का कोई विचार या इरादा नहीं हैं। इसलिए हमें ईमानदारी से कार्य करते हुए अपने भावों को शुद्ध रखना होगा, अपने परिणामों को सम्हालना होगा ।
भावों की विशुद्धि से ही आपका मंगल होगा
भावों की विशुद्धि से ही आपका मंगल होगा । अपने इष्ट के, अपने गुरु के दर्शनों से आपका मंगल होगा । लेकिन ध्यान रखना भाव शुद्ध होगें तभी मंगल होगा । यदि आपके भाव अशुद्ध हैं तो अमंगल भी हो सकता है । यह सब आपके भावों के परिणामों पर निर्भर करता है । हे भव्य आत्माओं हम सभी को अपने भावों को अंकुश रखते हुए सदैव नेक कार्यों में लीन रहना चाहिए । संयमी साधक की साधना में, धार्मिक व्यक्ति की उपासना में प्रतिपल सहयोगी बनना ही हमारा परम धर्म है, हमारा परम कर्तव्य है ।
भावों की परिणिति का फल
एक गांव की पहाड़ी पर एक मंदिर में पुजारी प्रतिदिन पूजा पाठ करता था । वो धार्मिक कार्य करते समय घंटी और अन्य वाद्य यंत्र भी बजाता था । उसी गांव की तलहटी में एक वेश्या भी रहती थी । जब वेश्या के यहां दरबार सजता तो घुंघरुओं की झंकार भी होती थी । मंदिर का पुजारी भी उन घुंघरुओं की आवाज को सुनता और वेश्या भी मंदिर की घंटियों की आवाज को सुनती । दोनों के परिणामों में जमीन आसमान का अंतर था ।
वेश्या के घुंघरुओं की आवाज से पुजारी के भावों में विकृति पैदा हो गई, वो सोचने लगा कि काश मैं भी नीचे गांव में होता तो वेश्या के नृत्य का आनंद लेता । लेकिन मैं कितना अभागा हूं कि यहां मंदिर में फस गया हूं। दूसरी तरफ मंदिर की घंटियों की आवाज सुनकर वेश्या के परिणामों में विशुद्धि उत्पन्न हुई। वो सोचती कि मैं कितनी अभागी हूं, मैं कितनी पापी हूं जो इस दल दल में फंस गई हूं। काश में भी उस पहाड़ी पर होती तो प्रभु की भक्ति करती, पूजा पाठ करती । दोनों के भावों का ही परिणाम था कि मरण के पश्चात मंदिर का पुजारी नरकगामी हुआ और गांव की वेश्या स्वर्गगामी हुई।

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